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कामनाओं की समाधि / कविता भट्ट

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कामनाओं की समाधि पर
कुछ पुष्प चढ़ाया करती हूँ।
झूमती हूँ इक नाटक कर
फिर पग बढ़ाया करती हूँ।

न रूप, न रंग, न शब्द पर
अब मुस्कराया करती हूँ।
स्पर्श, गंध से विलग होकर
अनेकश: मर जाया करती हूँ।

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