Last modified on 21 जून 2023, at 14:05

देरी / जय गोस्वामी / जयश्री पुरवार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:05, 21 जून 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जय गोस्वामी |अनुवादक=जयश्री पुरव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैं तो बहुत पहले ही निकल पड़ा हूँ घर से ।
और तुमने तो अभी मेरे घर की ओर
बस, चलना ही शुरू किया है ।

मैं मरुभूमि के देश में
रेत की आँधी में
जितना ही ढकता जा रहा हूँ बालू से,
समुद्र के नीचे धँसता चला जा रहा हूँ,
पर्वतों की देह से
जितना नीचे लुढ़कता जा रहा हूँ,
नीचे, और नीचे, और नीचे
तुम उतना ही धीरे - धीरे
आराम से मेरे दरवाज़े पर आकर घण्टी बजा रही हो

घण्टी बजाकर
तुम ऐसे खड़ी हो जाती हो
मानो कोई आकर अभी खोल देगा दरवाज़ा

दरवाज़ा खुलने में देर होती देखकर
तुम उसके साथ टिककर खड़ी हो जाती हो ...

कितने युग बीत गए
ऐसे ही तुम्हें खड़े-खड़े
घर के दरवाज़े की देह पर तुम्हारा जीवाश्म
वे क्या ढूँढ़ पाए !

जयश्री पुरवार द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित