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कचड़ेवाला / जय गोस्वामी / जयश्री पुरवार

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दो लोहे के पहिये लगे हुए हैं
खड़-खड़ चलता हुआ ठेला
हत्थे को मुट्ठी मे पकड़कर
धकेल कर लिए आ रहा है कचड़ेवाला
यह मोहल्ला निकल गया – मोहल्ला जहाँ ख़त्म होता है
वहां एक विशाल खाई है ।

हत्थे को पकड़कर ऊँचा किया ठेले को
फिर सामने से किया तिरछा
कूड़ा खाई मे गिर रहा है ।

यह तो कूड़ा नही है,
उसके ठेले मे भरे हुए हैं आणविक अस्त्र –
पृथ्वी पर जितने भी देशों ने इकट्ठा किए हैं जितने भी अस्त्र,
सब उस कचड़ेवाले ने भर लिए थे अपने ठेले मे ।

अब वह उन्हे फेंक रहा है –
झर - झर गिर रहे हैं वे सब उस खाई में,
उस खाई से नीचे समुद्र मे, और पूरा समुद्र
चक्राकार हो आकाश मे उठता जा रहा है
एक जलस्तम्भ के रूप में ।

सूर्य उतरकर खडा हुआ है ठीक पृथ्वी के सर पर –
उसका मुँह खुला हुआ है –
वह जी भरकर पानी पीएगा अब
सूर्य को नमकीन स्वाद की समझ नही है ।

जयश्री पुरवार द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित