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भोर: एक इम्प्रॅशन / रणजीत

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सिंदूरे है पूरब ने बादल पूरे
और पश्चिमी स्वास्तिक के मेघों का पूर्वार्ध रँगा
मेघ? नहीं हैं भाप-भरे ये
सिर्फ धुँवाले
गंगा-जमुनी गुब्बारे
जो गोल नहीं हैं
और रोशनी का बाना बढ़ता जाता है
अंधकार के ताने को मढ़ता जाता है
किरन-डोर से।

धीरे-धीरे धुल रही है कालिमा सब
चाय के पानी में जैसे घुल रहा हो दूध।
बादलों के धूसर मकानों पर
पुतती हुई सफेदी
शोख़ होती जा रही हैं
सूरज की किरणें जवान होतीं
चुभती सुई की तीखी नोक होती जा रही हैं
और मेरे दिल पर इस सूनी सुबह का
भार बढ़ता जा रहा है
तुम नहीं आईं अभी तक
इसलिए
मेरा घूमना बेकार बढ़ता जा रहा है!