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आवाज़ को पहचान लेना / रणजीत

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देखना मत रंग मंचों के जहाँ से बोलता हूँ
बस मेरी आवाज़ को पहचान लेना
हर शब्द मेरा है तुम्हारे ही लिए यह जान लेना।
मैं बोलूँ चाहे आकाशों की वाणी से
या छवि-गृह की अनुकूल हवा में दुहराऊँ
‘माइक’ के ऊँचे स्वर में तुम्हें पुकार कहूँ
या फटे गले से ज़ोर लगा कर चिल्लाऊँ
यह सब तो बस मैं इसीलिए करता हूँ
तुम किसी तरह भी मेरे स्वर को सुन पाओ
ये यंत्र तो केवल माध्यम हैं इन पर मत ध्यान देना
बस मेरी आवाज़ को पहचान लेना
हर शब्द मेरा है तुम्हारे ही लिए यह जान लेना।

‘जनयुग’ की खुली सड़क पर से मेरी आवाज़ आय
या गूँजे ‘धर्मयुगों’ की गंदी गलियों में
‘आजकल’ की रात के काले-घुटे माहौल में से
स्वर मेरे चाहे फूट पड़ें फुलझड़ियों में
यह सब तो बस मैं इसीलिए करता हूँ
तुम किसी जगह हो मेरे स्वर को सुन पाओ,
ये पत्र तो केवल माध्यम हैं, इन पर मत ध्यान देना
बस मेरी आवाज़ को पहचान लेना
हर शब्द मेरा है तुम्हारे ही लिए यह जान लेना।

मंदिर के शंख बजाकर मुझको कहनी होगी बात अभी
मस्जिद से अभी अजाँ के साथ तुम्हें आवाज़ लगाऊँगा
हर नगर, गाँव की राहों, सड़कों पर जाकर
ठंडे लोहू को फिर से मैं गरमाऊँगा
बाज़ार, फैक्ट्रियों, खेतों में, महलों, झोंपड़ियों में
हो जहाँ-जहाँ तुम भूले, भटके, सोये, खोये
मैं वहाँ-वहाँ पहुँचूँगा तुम्हें जगाऊँगा
तो देखना मत रंग मंचों के जहाँ से बोलता हूँ
बस मेरी आवाज़ को पहचान लेना
हर शब्द मेरा है तुम्हारे ही लिए यह जान लेना।