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पत्थर होती लड़कियाँ / पल्लवी विनोद

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लड़कियाँ मिट्टी-सी होती हैं
वो ढल जाती हैं तुम्हारे मनचाहे रूप में
कभी तुममें समाहित होकर
तो कभी तुम्हारे साथ बहकर
तुम प्रेम के पानी से उसे जैसा चाहे बना लेते हो
कभी मटका, कभी बर्तन, कभी गुल्लक, कभी मूर्ति
फिर भर देते हो उसमें संस्कारों का जल
कभी रोटी, तो कभी जड़ाऊ आभूषण
कभी बंदिशों के सिक्के खड़खड़ाते हैं उसमें
और उसकी इच्छाओं के सैलाब
उसके भीतर ही दफन हो जाते हैं
जिस हरीतिमा का आकर्षण उसे लुभाता था
वही नीले-हरे शैवाल उसके कफन बन जाते हैं।
ये पत्थर देख रहे हो!
जो अब तुम्हें चोट देने लगे हैं
यह मिट्टी का ही रूपांतरण हैं
तुम्हारे प्रतिकार, तुम्हारी जुगुप्साएँ
तुम्हारे ताप, तुम्हारे दबाव ने उसे बदल दिया है
अब नहीं जमती उस पर कोई दूब
बारिश की बूंदों से उनका सोंधापन नहीं गमकता
उसकी भावनाओं की कोमल कलियाँ
भीनी खुशबू लिए सुगन्धित फूल
सब उसके भीतर कहीं दब चुके हैं
परत दर परत भावनाओं को जब्त कर
तुम्हारे वजूद को घायल करते ये 'पत्थर'
तुम्हारी ही उपज हैं
अब बना लो इनकी मूर्ति और सजा लो घरों में
जैसा चाहोगे वैसे ही रहेंगी
न आँसू बहेंगे, न कोई सवाल करेंगी
स्वप्नविहीन, भावहीन घर के कोनों में खड़ी ये मूर्तियाँ
इस समाज को तुम्हारी ही देन हैं।
तुम्हारे पौरुष के स्वांग से ही जन्म ले रही हैं
ये पत्थर होती लड़कियाँ