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इक नन्हीं सी कोपल / ऋचा

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इक नन्हीं-सी कोपल
कभी फूल न बनती
अगर तू न होती माँ
दुनिया की इस दौड़ में
जीने मरने की होड़ में
कभी न पनपती
अगर तू न होती माँ

कभी जब अंधेरों में
घिर जाती हूँ
लड़ते-लड़ते
थक जाती हूँ,
जी चाहता है
यही रुकूँ फिर
जियूँ चाहे मरूँ,
इक चेहरा जो
फूलों से कोमल
इक आवाज़ जो
शक्ति का सम्बल
इक स्पर्श जो
सबसे शीतल
खींचता है इन
अंधेरों से मुझे बाहर
देता है नई ऊर्जा
नई प्रेरणा, नव प्राण,
थक कर हार ही जाती
अगर तू न होती माँ।