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सपने का टूटना-1 / सुरेश सलिल

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पिता चुपचाप लेटे थे पलकों का पर्दा डाले
और मैं उनकी बाँहों की
कमर से ऊपर धड़ की
आहिस्ता-आहिस्ता मालिश कर रहा था,
आहिस्ता-आहिस्ता मेरी उँगलियों में
और हथेलियों में उतर रही थी
पिता की देह की बची-खुची गरमाहट
करुणा की नई पोशाक में
जिसे मैंने पहले कभी
देखा-छुआ नहीं था

पिता के दाएँ हाथ में
हल्की-सी हरकत हुई यक-ब-यक
उन्होंने मालिश में व्यस्त
मेरे दाहिने हाथ को धीरे से खींचा
अपने सीने की तरफ़
जो बर्फ़ होता जा रहा था
और उसके नीचे
एक कबूतर धीरे-धीरे फड़फड़ा रहा था

मालिश में व्यस्त मेरा दाहिना हाथ
उस बर्फ़ को हटा रहा था जब
तभी सपना टूट गया...

शायद यह सपनों के टूटने का ही दौर है
शायद यह
बर्फ़ के और-और शातिर होते जाने का ही दौर...
लेकिन मेरी ढट्ठेदार हथेलियों में
अभी भी शेष है पिता की देह की गरमाहट...