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क़ामयाबी का अँगारा / राम सेंगर

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क़ामयाबी का अँगारा
मुट्ठियों में बन्द है ।
उँगलियाँ सब जल रहीं, पर आ रहा आनन्द है ।

              आक्रमण पर आक्रमण अक़्सर किए
              बघनखाधारी समय वैताल ने ।
              अस्मिता की प्राणरक्षा की सदा
               शेर की ओढ़ी हुई इस खाल ने ।

बारजे की धूप
टुकड़ों में विभाजित हो गई
महमहाता फूल का सूखा हुआ मकरन्द है ।

               नकारात्मक उत्तरों के शव लिए
                आस की बैसाखियों पर चल रहे ।
               आँधियों के आचरण से घिन हुई
               एक ठण्डी सांत्वना में जल रहे ।

परिधि अपने वृत्त की
टूटी नहीं पूरी अभी
तोड़ने इसको श्रमिक-मन खा चुका सौगन्ध है ।

               धूल का चन्दन बदन पर पोतकर
               स्वयं पर जी खोल कर हम हँस लिए ।
               पृष्ठ की गरिमा अजाने दे गए
               ज़िन्दगी के नाम भोगे हाशिये ।

कोसने से कसाई के
बैल मर पाया नहीं
गोकि सोते-जागते, दी बददुआ हरचन्द है ।

               खिल्लियों के दंश सारे झेलते
               समयगत सच्चाइयों से लड़ रहे ।
               पीठ पर लादे घरौंदा प्यार का
               इस कुतुबमीनार पर हम चढ़ रहे ।

टूटने की ध्वनि
कहाँ से आ रही, क्या सोचना
आज अधरों पर मचलता ज़िन्दगी का छन्द है ।
उँगलियाँ सब जल रहीं, पर आ रहा आनन्द है ।