भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो / दोपदी सिंघार / अम्बर रंजना पाण्डेय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:56, 11 अगस्त 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दोपदी सिंघार |अनुवादक=अम्बर रंजन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आदमी बनाती अपना उसे
गहने के नाम के गिलट की नथ तक नहीं दी
गहनों के नाम पर लाया एक दराँती हाट से
बोला, 'यहीं है अपना गहना अपना चाँद, अपना प्यार' ।
उन्नीस साल की उमर
बताओ भला, दराँती को मानती गहना
फिर एक रात आया ।
काका मेरे गए थे मंडला
काकी बुखार में बड़बड़ाती है ।
रसोई में बुलाया आधी रात
खोल दिए ब्लाउज के बटन
मैंने उसकी दी दराँती निकाल ली
खिलखिलाके हँसा
चुटिया खींच के गले भींच लिया ।
उसके बाद कभी नहीं आया
न मिली उसकी लाश
जिसको अपना मर्द बनाना चाहती थी
उसकी लाश की बात करते
रोना नहीं आता
कहता था वो
बचाना हो दोपदिया तो गुस्सा बचाना
जैसे बचाता है तेरा काका रुपैया ।