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दिन और रात / फ़्योदर त्यूत्चेव / वरयाम सिंह

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देवताओं की उच्च इच्छाओं ने
बिछा दिया है स्वर्णांचल
आत्माओं के रहस्यमय संसार
और अनाम इस गह्वर पर ।

यह दिन — चमकता हुआ उसका आँचल है,
यह दिन जीवन है धरती के प्राणियों का,
रुग्ण आत्माओं का उपचार है
और मित्र है मनुष्य और देवताओं का ।

लेकिन निष्प्रभ पड़ जाता है दिन,
प्रवेश करती है रात
अशान्त दुनिया के ऊपर से
हटा देती है स्वर्णांचल, फेंक देती है फाड़कर ।

निर्वस्त्र हो जाता है अथाह आकाश
अपने समस्त अन्धकार और भय के साथ,
कोई परदा नहीं रहता उसके और हमारे बीच
इसीलिए तो हमें भयावह लगती है रात ।

1839
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय
लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
           Федор Тютчев
             День и ночь

На мир таинственный духов,
Над этой бездной безымянной,
Покров наброшен златотканный
Высокой волею богов.

День — сей блистательный покров
День, земнородных оживленье,
Души болящей исцеленье,
Друг человеков и богов!

Но меркнет день — настала ночь;
Пришла — и с мира рокового
Ткань благодатную покрова
Сорвав, отбрасывает прочь…

И бездна нам обнажена
С своими страхами и мглами,
И нет преград меж ей и нами —
Вот отчего нам ночь страшна!

1839 г.