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मैं क्यों लिखती हूँ / कल्पना पंत

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मैं लिखती हूँ क्योकि जैसे साँस आती जाती है
वैसे ही लिखना हो जाता है,
मैं साँसों की आवाज लिखती हूँ,
इसलिए नहीं कि मैं कुछ बता सकूँ,
बल्कि मैं ज़िन्दा रह सकूँ
अपरिचित आवाज़ों के बीच,
भोथरे साजों के बीच,
ये दुनिया जो चीख का समन्दर रचती है,
खून से इतिहास लिखती है,
कराहों, आँसुओं के बीच,
ज़िन्दगी का साज़ रचती हूँ,
कि ये दुनिया ख़ूबसूरत भी तो हो सकती है