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बरसात / कजाल अहमद / जितेन्द्र कुमार त्रिपाठी

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वह चमकाती है बिजलियाँ
और प्रसारित करती है गर्जन
वह निरस्त करती है सूखे को
कैलेण्डर की छुट्टियों में
वह रोती है सारे खड़े हुए पेड़ों के लिए
और सारे बैठे पत्थरों के लिए
वह देती है ज़िन्दगी
पर डुबो देती है
मेरी जीने की इच्छा को

मैंने आज़माया है हर दन्तकथा को
एक लबादे की तरह
और यह बरसात वह लबादा है
जो कभी नहीं भायी मुझे ।