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साईकिल / शिव रावल

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तूने (साईकिल) संभाले हैं कितने बचपन, बुढ़ापे, जवानियाँ
ना जाने कब से तेरे सफ़र लिखते आए हैं अनगिनत कहानियाँ
तेरे सहारे न जाने कितने अल्लहड़पन गिर-गिर के नौजवां बने
तूँ न जाने कितनी मोहब्बतों का सिलसिला बनी
तूँ कामयाबी की निशानी के तौर मुकर्रर हुई, बूढ़े पैरों का सहारा बनी
लोहे-सी मिसालें हैं तेरी ए रौनक-ए-गुजरा-ज़माना
ये और बात के अब मौजूदा दौर तुम्हें देखकर इतराता है
खैर ये भी तसल्ली है 'शिव' के कोई तो शौंक से साईकिल चलाता है