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अम्मा का बक्सा / वंदना मिश्रा

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अम्मा का एक बक्सा था।
हरे रंग का।
बचपन से उसे उसी तरह देखा था।
एक पुरानी रेशमी साड़ी का बेठन लगा था
उसके तले में जिसके बचे
आधे हिस्से से ढका रहता था
उसका सब माल असबाब
कोई किमखाब का लहंगा नहीं
कोई नथ, बेसर नहीं
कोई जड़ाऊ कंगन नहीं
सिर्फ
कुछ साड़ियाँ
पुरानी एक किताब

पढ़ने के लिए नहीं
रुपयों को महफूज़ रखने के लिए
क़ुछ पुरानी फ़ोटो।

कोई बड़ा पर्स नहीं था माँ के पास
कोई खज़ाना भी नहीं।
पर पता नहीं क्यों वह बक्सा खुलते ही
हम पहुँच जाते थे
उसके पास।

झांकने लगते थे
कुछ न कुछ तो मिल ही जाता था
और कुछ नहीं तो माँ से
सटकर बैठने का सुख
सामान को
उलट पुलट कर
डांट
खाना।

एक सोंधी-सी महक निकलती थी
उस बक्से में से
माँ चली गई तो दीदी
उस बक्से को पकड़ के बहुत रोई

उस बक्से को चाह कर भी
'बॉक्स' नहीं कह सकते
जैसे अम्मा को मम्मी
भाई ने कुछ साल पहले खरीद दी थी
एक बड़ी अलमारी माँ के लिए
पर वह हरे बक्से जैसा
मोह नहीं जगा पाई
कभी हमारे दिलों में।
माँ की गन्ध बसी है
उस बक्से में।