देखकर उसे
नई परिभाषा गढ़ रहा हूँ
सौंदर्य को नए ढंग से पढ़ रहा हूँ
जो तपी त्वचा में ऊबल आया
जिससे जीवन व्यापार चलाया
झुरझुराने तक छिपे
जिसमे कितने आनंद सोते
हाँ! लटकती मांस की लोथे
पिचके गाल
पके बाल
स्पष्ट करते है स्थिति
बुढ़ापे और यौवन की
एक-एक नस में उभरा गोदना
जिसमें स्मरण है उसकी अतृप्त आकांक्षा का
न जाने किस उन्माद में
टाँक गई तपती सुइयों को
अपने भीतर उफनते लावे की तरह
बनाए कितने फूल पत्तें
जो साथ हैं आज भी
बुढ़ापे की दहलीज तक उसके
ये गठियाईं टांगें,
ये कुबड़ी कमर,
ये घिसे मसूडें
सब काल की ठोकर नहीं
नियति भी है उसके श्रम की
दीप्ति एवं अंधकार की अजश्र धारा में डूबते-तरते
कहती हैं उसकी आँखें
जिससे उसका अतीत झाँकता है
नई दुनिया को नापकर
अपना मूल ब्याज माँगता है
संभव नहीं उसने पाई हो
पेट भर रोटी कभी
नकछेदी पुटे ढाँप दी पीतल से
डाल दी पैरों में बेड़ी
ये सब पुरूषत्व की धजा थीं
आज भी संसियाती है
कंपकंपाती है
जिसकी छाया में
हँसती भी, मुस्कराती भी
जिसकी माया में
उसकी इच्छा से जीती रही
अलंघ्य लक्ष्मण रेखाओं के बीच
रही तृप्त
होकर भी अतृप्त
आकांक्षा पंख फैलाने की
उड़ने जैसे स्वप्न भी
देखे पगली ने
इसी उछाह में
जनें बच्चे कई
धान रोपी, ढ़ोर चराए
केवल नख दृष्टि जमाएँ
वह उड़ती रही अपनी दुनिया में
इतना सपना देखकर मूँद जाती है आँखें
अब न उड़ पाएँगी पाँखें
क्योंकि यही नियति है हर नारी की l