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अतृप्त प्रेमिकाएँ / भावना जितेन्द्र ठाकर

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अधूरी गज़ल सी,
अतृप्त प्रेमिकाओं को तानें कसने का पूरा अधिकार है।
 
वेदना की सेज पर रेंगती चाहत उनकी,
प्रेम के शीर्ष तक नहीं पहुँच पाई!
उस हार की ग्लानि से भरा मन कहाँ उड़ेलती?

प्रेमियों की कमज़ोर छवियाँ हृदय रथ पर विराजमान किए
ज़माने से जूझती थक-सी गई है,
मन की चौखट से उस दर्द का शोर उल्हानों में बदलते बरस उठे तो क्या गलत है।
 
दूसरी औरत,
केप्ट या रखैल की गाली को क्यूँ नहीं बदलता वाग्दत्ता के रूप में,
पाखंड़ चढ़े प्रेम की दुहाई देकर छल की माला पहनाने वाला डरपोक जो है।

संभावनाओं की कसौटी पर खड़े इश्क को बचाने की जद्दोजहद,
धुँधले भविष्य की कल्पना मुस्कान छीन लेती है प्रेमिकाओं की।
 
प्रेमी के परिवार की हाँमी पर टिके भविष्य को ठोकर मारते चिल्लाती है
तो अतिक्रमण क्यूँ माना जाता है?
उस अपूर्णता की मोहर से लदी इष्टा की बोली वाग्बाणों में तब्दील होते
तीर-सी छूटे तो क्या गलत है।
 
समर्पण के बदले मानदेय में अलगाव का ऐलान मिले, प्रेम की आहुति
पर प्रज्वलित-सी आग के बदले धुआँ मिले तो कोई कैसे बस में रहे?

कब तक अपनी चाहत का स्तर नीचे बहुत नीचे गिराकर अपमानित होती रहती,
प्रेम किया था कोई गुनाह तो नहीं? तपस्विनी का चोला फेंक चंडी बनने का प्रेमिकाओं को पूरा अधिकार है।