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कहाँ कुछ ज़्यादा मांगा / भावना जितेन्द्र ठाकर

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ज़्यादा विस्तृत नहीं जहाँ मेरा,
तुम्हारे हिया की चौखट मेरे वजूद का बसेरा।

पर्वत के शीर्ष से उद्भव होती सरिता को गवाह रखकर,
तुम्हें फूल देने वाली उस घटना की कसम,
मेरी प्रीत का दर्पण तुम्हारी आँखें है।

सहज लो मुझे ख़्वाबगाह की संदूक में और पलकों का पहरा लगा दो,
सपना बन तुम्हारी पुतलियों में झिलमिलाते रहना चाहती हूँ।

हठात नहीं! समर्पित है हर साँसों का डेरा,
बिछ जाना चाहती है धड़क तुम्हारी आरज़ू बन यूँ,
फ़ैल जाता है झील के पाटों पर चाँदनी का नूर ज्यूँ।

करीब आ अपने एहसासों के हर रंग से तुम्हारी हथेलियों पर रंगोली रचूँ...
नखशिख तुम्हारी अदाओं में इठलाती ढलना चाहती हूँ।

उम्मीदों की चरम इतनी-सी छुए मेरी ही नज़रें तुम्हें और किसीको छूने न दूँ,
तुम्हारे उर के भवन पर एकचक्री शासन करते ही मेरी उम्र बीते।

कहाँ कुछ ज़्यादा मांगा?
नखरों को तुम्हें सौंप इतराते,
राजसी ठाट ही तो चाहा।