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संभवामि युगे युगे / भावना जितेन्द्र ठाकर

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हे कृष्ण
कहाँ है सतयुग की क्षितिज
क्या लौटेगा कभी वह वक्त
संभवामि युगे-युगे वचन को
हे देवकीनन्दन युगों बीते
सुदामा की पुकार पर,
द्रौपदी की आह पर
पांडवों की हार पर
राधा की गुहार पर जो
मुरली की तान छेड़े
सुदर्शन चक्र का वार किए
दौड़ा चला आता था
वो कृष्ण कहाँ है
कलयुग की यातनाएँ
सतयुग से कई गुना कंटीली है
झाँको कभी जगदाधार
वेदनाओं के कोहराम से सजा
धरती का सीना तार-तार है
बेटियों की पीड़
महामारी की वेदना
सियासती तांडव और
राग, द्वेष, इर्ष्या की धूप
बहुत जलाती है
सीधे इंसान क्रंदन करते थक गए
कब तक जूझे हम कान्हा
अब तो जन्म धरो जगदीश
अभी कौनसे झलझले का
आपको इंतज़ार है
क्या पुकार में हमारी शिद्दत नहीं
या नियत में आपकी खोट है।