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वजूद का शोर / भावना जितेन्द्र ठाकर

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मैं अपने पथ का हर अध्याय खुद लिखती हूँ"
भीतरी उर्जा के स्रोत को कल्पना की द्रश्यावली में पिरोकर,
सन्नाटे को चिरकर अपने वजूद का शोर बुनती हूँ।

गतिशील ख़यालों के साथ उड़ती हूँ,
मैं पागल हूँ बादलों की रुई-सी फ़ाहों के पीछे,
बारिश की बूँदों में अपना प्रतिबिम्ब देखती हूँ।

खुद के भीतर अविश्वसनीय शक्ति पैदा करते
वक्त की हर चाल का बखूबी जवाब देती हूँ,
क्या कुछ गलत करती हूँ? ...

प्रवाल-सी न समझो पर्वत-सी अड़ीग हूँ,
सम्बल हूँ अपनों का किसी पर बोझ नहीं,
खुद के लिए पुल निर्माण खुद करती हूँ।

मैं लिखती हूँ शब्द घट से गौहर चुनकर,
पूरा शहर मेरी हर रचना को
चुस्की लेकर पीते हर शब्दों की लज्ज़त लेते जीता है।

अपनी हड़्डीयों की भड़भड़ती आग से जला देती हूँ
मुझे छलने वालों की नियत को,
अश्कों से दोस्ती नहीं करती।

दुनिया का सबसे शक्तिशाली प्रवाह मेरी ओर धसमसते आ रहा है,
ज्वार को मैंने कभी महसूस ही नहीं किया।

मेरे सपनें सुस्पष्ट है मैं अपनी हर बात पर कायम हूँ,
सुंदर परिकल्पनाओं के साथ जन्मी वेधकता का पर्याय
मैं इक्कीसवीं सदी की नारी हूँ।