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प्रश्न अंतर्व्यथा के अबोले रहे / पीयूष शर्मा

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मौन संवाद में तुम विलय हो गए
प्रश्न अंतर्व्यथा के अबोले रहे।

पुण्य घबरा गया पाप की छाँव से
दूर मानस चले प्रेम के गाँव से
तार टूटा खनक शोक में ढल गई
मुक्त घुँघरू हुए संदली पाँव से

रूह हर क्षण भटकती रही दर-बदर
आँख से मंत्रणा की समंदर बहे।

ज्ञान अग्ज्ञानता के शिखर पर चढ़ा
वेदना ने स्वयं को कलम से गढ़ा
अस्त जैसे ख़ुशी का दिवाकर हुआ
प्राण के सामने काल तनकर खड़ा

चाँद बेघर हुआ, रात बेबस हुई
सेतु विश्वास की भावना के ढहे।

जब मिलन की कथा हो न पाई सफल
डबडबाए नयन पीर आई निकल
सभ्यता का दुशाला धरा पर गिरा
जल गया भावना का समूचा महल

रातरानी पृथक हो गई गंध से
कष्ट आवारगी के, चमन ने सहे।