अभिव्यक्ति न अपनी शब्दखेल / राम सेंगर
खुरहर सूनी, दुख बेशुमार ।
अपनी-अपनी कहने वाले
मसख़रे गरज़ के मतवाले
कट-कट मिलते बाँहें फैला
फिचकुर छिटकाते गन्धेला
कैसे दें उन पर प्राण वार ।
कचरा हो या कूड़ादानी
माखीजा हो या मलकानी
प्रभुताई का अन्धा ग़ुरूर
साधे हैं सारे बेशऊर
सच कहता है यह ख़ाकसार ।
कुर्ते पर फटे सलूका-से
जनपद में एक बिजूका-से
घोड़ों में गदहा कहे गए
सम्बोधन मिलते गए नए
फब रहे हमें सब अस्वीकार ।
उपदेशक वे, हम दास हुए
यारों के जब-जब पास हुए
मुद्राओं के सब धनी रहे
हमने सोचा, बस, बनी रहे
नाख़ूनों पर गो रही धार ।
अभिव्यक्ति न अपनी शब्दखेल
भैयों ने तानी है गुलेल
अनुभव का सत्य नहीं भाए
सौन्दर्यबोध पर इतराए
है लाइलाज़ यह अपस्मार ।
टूटी, रचना की मुख्य धुरी
हो गई गद्य कविता ससुरी
कुछ रेड़ कुचबँधों ने मारी
कुछ नामवरों की मक़्क़ारी
फल-फूल रहा है रोज़गार ।
बांगुर फैले हैं क़दम-क़दम
चौकन्ना रहते हैं हरदम
कब कौन पटखनी दे मारे
कब आग-फूस हम पर डारे
कब अपने दे बक़ले उतार ।
खुरहर सूनी, दुख बेशुमार ।