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असंभव को संभव बनाने / हरिवंश प्रभात

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असंभव को संभव बनाने को निकलो।
सितारों से महफ़िल सजाने को निकलो।

गरीबों के घर में अँधेरा बहुत है,
मरौवत का दीपक जलाने को निकलो।

नदी सूख जाएगी इंसानियत की,
मुहब्बत का दरिया बहाने को निकलो।

दिखाई अगर दे ज़मीं सारी बंजर,
सुमन पत्थरों पर उगाने को निकलो।

बहारें अगर हैं तुम्हें जो मयस्सर,
चमन में नए गुल खिलाने को निकलो।

न निकलो कभी तोप-तलवार बनकर,
मुहब्बत व मिल्लत सिखाने को निकलो।

झुकाकर नज़र पढ़ते अख़बार क्यों हो,
क़दम मंज़िलों तक बढ़ाने को निकालो।

जो रखते हैं ‘प्रभात’ अवसर से मतलब,
उन्हें आइना तुम दिखाने को निकलो।