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ग़ज़ल ज़िन्दगी है / हरिवंश प्रभात
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ग़ज़ल ज़िन्दगी की, मैं गाकर के देखा।
मुहब्बत में दिल को, जलाकर के देखा।
बहुत फ़ासला था, अभी मंजिलों का,
जो सोये थे उनको, जगाकर के देखा।
बहुत वेदना देता, माँ का बिछड़ना,
मैं गंगा में अस्थि, डुबाकर के देखा।
जो ऊंगली पकड़कर, चलाया था रस्ता,
पिताजी को यादों में लाकर के देखा।
पड़ा था ना जाने, जो रस्ते में कब से,
वो पत्थर किनारे, हटाकर के देखा।
सुकूँ अब है कितना, तेरी ज़िन्दगी में,
परिंदे को घर से, उड़ाकर कर के देखा।
बेचारे बहुत हैं जो दुश्मन के आगे,
वो यादों की कलियाँ खिलाकर के देखा।
भलाई हुई है, जो लोगों को हमसे,
सबों ने बराबर, सताकर के देखा।
कई ख़्वाब टूटे, कई ख़्वाब बिखरे
नए ख़्वाब फिर से सजा कर के देखा।