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हम जिसको चाहते हैं / हरिवंश प्रभात

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हम जिसको चाहते हैं, अभी तक मिला नहीं।
वो है भी या नहीं है, हमें कुछ पता नहीं।

कुछ सोचकर समेटा हूँ मैं अपनी प्यास को,
नदिया मिली बहुत पर, समंदर मिला नहीं।

उसके महल को ताजमहल किस तरह कहें,
राहे वफ़ा में कोई भी इतना गिरा नहीं।

पत्थर चला है फूल से करने को दोस्ती,
क्या बे ज़ुबान लोग भी करते वफ़ा नहीं।

तबियत मेरी पसंद अगर कुछ भी है तुम्हें,
तुम भी तो दे धोखा, किसने दिया नहीं।

तोहफ़ा समझ के तेरी शिकायत क़ुबूल की
हमको किसी की बातों से कोई गिला नहीं।

ख़ुशबू में जिनकी आज भी हम हैं रमे हुए,
सच्चाई है वह फूल अभी तक खिला नहीं।

अँधेरों की नगरी में, उजालों का है सफ़र,
घर छोड़ कर मैं अपना, कहीं भी गया नहीं।

सुन सुन के परिंदों की सदा झूम रहा हूँ,
बैठा हूँ गुलिस्तां में मुझे मय पिला नहीं।