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चलो अब मुसाफ़िर / हरिवंश प्रभात

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चलो अब मुसाफ़िर, जो है चलनेवाला।
मेरा ग़ैर साथी जो है दिखनेवाला।

कहाँ आसरा कोई मासूम चेहरा,
कहाँ मिल सकेगा जो है मिलनेवाला।

बना सूत्र संदेह अपनों का जीवन,
तरस जा रहा है जो है करनेवाला।

बताऊँ मैं कैसे मेरी बेबसी को,
वही भूल राहों में जो है गड़नेवाला।

बनाया था जिसको बहुत गर्दिशों में,
वही गाँव का घर अब गिरनेवाला।

‘प्रभात’ पहुँच पाएगा कैसे मंज़िल,
है अपना कोई भटक जानेवाला।