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वेदना को शब्द के परिधान पहनाने तो दो / हरेराम समीप

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वेदना को शब्द के परिधान पहनाने तो दो
ज़िंदगी को गीत में ढल कर जरा आने तो दो

वक्त की ठण्डक से शायद जम गई मन की नदी
देखना बदलेंगे मंज़र‚ धूप गर्माने तो दो

खोज ही लेंगे नया आकाश ये नन्हे परिंद
इन परिंदों को ज़रा तुम पंख फैलाने तो दो

ऐ अँधेरो ! देख लेंगे हम तुम्हें भी कल सुबह
सूर्य को अपने सफर से लौट कर आने तो दो

मुद्दतों से सोच अपनी बंद कमरे में है क़ैद
खिड़कियाँ खोलो‚ ज़रा ताज़ा हवा आने तो दो

कब तलक डरते रहे हम‚ ये न हो‚ फिर वो न हो
जो भी होना है‚ उसे इस बार हो जाने तो दो