Last modified on 12 दिसम्बर 2023, at 20:56

श्मशान घाट पर / हरीशचन्द्र पाण्डे

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:56, 12 दिसम्बर 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीशचन्द्र पाण्डे |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दूसरे को राख कर
ख़ुद बची हुई है गँठीली लकड़ी

श्मशान सब कुछ राख नहीं कर पाता

जो राख है उसमें भी
ढूँढ़ रहे हैं कुछ जीवन के ज़ेवर
कुछ अधजली लकड़ी के बचपन पर निगाहें गड़ाए हुए हैं

एक गूँगा बची हुई लकड़ी को
अपनी अव्यय आवाज़ के सहारे उठा कन्धे पर लाद लेता है

श्मशान सबको राख नहीं कर पाता
बल्कि कुछ लोग इसे ठण्डी रातों में
लिहाफ़ बना ओढ़ लेते हैं ।