भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर लौटने पर / कुलदीप सिंह भाटी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:27, 28 जनवरी 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुलदीप सिंह भाटी |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
घर लौटने पर
स्वागत में मेरे
खुलते हैं
दरवाजे के दोनों पल्ले।
और
घर में प्रविष्ट होते ही
बन्द हो जाते हैं
फिर से
दरवाजे के दोनों पल्ले।
खुलते-बंद होते
ये दरवाजे के पल्ले लगते हैं
माँ की खुली और सिमटी बाँहों-से
वो जितने उत्साहित हैं
भर लेने को
मुझे बांहों में
उतना ही उत्साहित होता हूँ
मैं भी आने को
अपने घर
और
माँ की बाँहों में।
वाकई!
माँ के आँचल
और
घर की छत का अपना सुकून है।