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उड़कर नभ तक रेत जली / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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उड़कर नभ तक रेत जली।
तब मरु पर बरसी बदली।
वेग हुआ जब-जब ज़्यादा,
तब-तब हुई नदी छिछली।
देखी सोने की चिड़िया,
कोषों की तबियत मचली।
ज़िंदा कर देंगे सड़ मत,
कह गिद्धों ने लाश छली।
मंत्री जी की फ़ाइल से,
केवल महँगाई निकली।
कब तक सच मानूँ इसको,
‘दुर्घटना से देर भली’।
अब पानी बदलो ‘सज्जन’,
या मर जाएगी मछली।