लौटना / सुनील कुमार शर्मा
लौटना मायके में
स्त्री के लिए कभी भी
लौटना हो ही नहीं पाता,
नहीं रह जाता
बहुत कुछ पहले जैसा
पत्नी होने में बहुत कुछ
छूट जाता है
टूटता जाता है
बदल जाता है
गीतों का गुनगुनाना,
तितलियों का पंख फड़फड़ाना
बारिशें भी नहीं रहती
बारिश की तरह
नहीं भिगो पाती मन,
रिश्तों की आंच में
अक्सर जलाती है हाथ
पर छुपा लेती हैं
फफोले दुनिया से,
उत्तरदायी होने की चाह में
निकल आते है
उसके पांच- छः हाथ
बदल जाते है सपने भी
खुद नहीं होती सपनों में
पर होते हैं धूप के टुकड़े
दूसरों के लिए,
और साथ रहते है
उसके रतजगे
देख लेती है तत्वदर्शी आँखों से
वो भी जो नहीं दिखता-
देह में कैद बुझी हुई आत्माएं
खिलती हुई वासनाएं,
देह ही यहाँ
देह पर क्यों मर रही !
आत्मा के तलघरे से
बाहर निकल खोजती है
बच्चों के साथ थोड़ा बचपन,
बचाती रहती है
कुछ अनहद संभावनाएं