घोड़े का दाना / केदारनाथ अग्रवाल
सेठ करोड़ीमल के घोड़े का नौकर है
भूरा आरख। –
बचई उसका जानी दुश्मन !
हाथ जोड़कर,
पाँव पकड़कर,
आँखों में आँसू झलकाकर,
भूख-भूख से व्याकुल होकर,
बदहवास लाचार हृदय से,
खाने को घोड़े का दाना
आध पाव ही बचई ने भूरा से माँगा ।
लेकिन उसने
बेचारे भूखे बचई को,
नहीं दिया घोड़े का दाना;
दुष्ट उसे धक्का ही देता गया घृणा से !
तब बचई भूरा से बोला :
‘पाँच सेर में आध पाव कम हो जाने से
घोड़ा नहीं मरेगा भूखा;
वैसे ही टमटम खींचेगा;
वैसे ही सरपट भागेगा;
आध पाव की कमी न मालिक भी जानेगा;
पाँच सेर में आध पाव तो यों ही, भूरा !
आसानी से घट जाता है;
कुछ धरती पर गिर जाता है;
तौल-ताल में कुछ कमता है;
कुछ घोड़ा ही, खाते-खाते,–
इधर उधर छिटका देता है ।
आध पाव में, भूरा भैया !
नहीं तुम्हारा स्वर्ग हरेगा
नहीं तुम्हारा धर्म मिटेगा;
धर्म नहीं दाने का भूखा ! –
स्वर्ग नहीं दाने का भूखा ! –
आध पाव मेरे खाने से
कोई नहीं अकाल पड़ेगा ।’
पर, भूरा ने,
अंगारे सी आँख निकाले,
गुस्से से मूँछें फटकारे,
काले नोकीले काँटों से,
बेचार बचई के कोमल दिल को
छलनी छलनी कर ही डाला ।
जहर बूँकता फिर भी बोला :
‘नौ सौ है घोड़े का दाम !-
तेरा – धेला नहीं छदाम ।
जा, चल हट मर दूर यहाँ से ।’
अपमानित अवहेलित होकर,
बुरी तरह से ज़ख़्मी होकर,
अब ग़रीब बचई ने बूझा :
पूँजीवादी के गुलाम भी
बड़े दुष्ट हैं; –
मानव को तो दाना देते नहीं एक भी,
घोड़े को दाना देते हैं पूरा;
मृत्यु माँगते हैं मनुष्य की,
पशु को जीवित रखकर !
रचनाकाल : १२-०४-१९४६