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कभी नहीं सोचा था / सुरजीत पातर

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वैसे तो मैं भी चन्द्रवंशी
सौन्दर्यवादी
संध्यामुखी कवि हूँ


वैसे तो मुझे अच्छी लगती है
कमरे की हलकी रोशनी में
उदास पानी की तरह चक्कर लगाते
एल० पी० से आती
यमन कल्याण की धुन


वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है
शब्दों और अर्थों की चाबियों से
कभी ब्रह्मांड को बन्द करना
कभी खोल देना


क्लास-रूम में बुद्ध की अहिंसा-भावना को
सफ़ेद कपोत की तरह पलोसना
युक्लिप्टस जैसे हुस्नों पर
बादल की तरह रिस-रिस बरसना


वैसे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है
आसमान पे सितारों को जोड़-जोड़कर
तुम्हारा और अपना नाम लिखना


लेकिन जब कभी अचानक
बन्दूक़ की नली से निकलती आग से
पढ़ने आए हुए छात्रों की छाती पर
उनका भविष्य लिखा जाता है
या गहरे बीजे जाते हैं ज्ञान के छर्रे
या सिखाया जाता है ऐसा सबक
कि घर जाकर माँ को सुना भी न सकें
तो मेरा दिल करता है
जंगल में छिपे गुरिल्ले से कहूँ :


ये लो मेरी कविताएँ
जलाकर आग सेंक लो


उस क्षण उसकी बन्दूक़ की नली से
निकलती आवाज़ को
ख़ूबसूरत शेर की तरह बार-बार सुनने को जी चाहता है


हिंसा भी इतनी काव्यमय हो सकती है
मैंने कभी सोचा न था


सफ़ेद कपोत लहूलुहान
मेरे उन सफ़ेद पन्नों पर आ गिरता है
जिनपर मैं तुम्हें ख़त लिखने वाला था


ख़त ऐसे भी लिखे जाएँगे
मैंने कभी सोचा न था।

पंजाबी से अनुवाद: चमन लाल