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कोरोना / ईप्सिता षडंगी / हरेकृष्ण दास

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मैं नहीं जानती
कोरोना का रोना कैसा गुज़रा उनपर
सच को आईना मानती हूँ, मगर !

खेल ऐसा हुआ
अ्न्धी राजनीति का जुआ

लाखों परदेसी, लोग भोले-भाले
परदेस से अपना बक्सा सम्भाले
मीलों पैर घिसते हुए
मौत के मुँह में पिसते हुए
चले पाँव-प्यादे
सहते घनी पीड़ को
अपने घर की डगर, अपने नीड़ को

अंधविश्वास के बीज मन में भरे
लोग घर से अफ़रा-तफ़री में निकल पड़े
धरम के भरम में लगाया मौत को गले

किसी की आत्मा में ऐसा डर कभी न था
विज्ञान की चमक, रिश्तों की महक
और उस पर ये कि —
पैसों की खनक
हमें मदमत्त रखा हर घड़ी, हर जगह
लेकिन,
डर ने जकड़ ली है हर धड़कन…
हल्की-सी छुअन के ख़याल से भी
डरकर जाता है घर
जान निकल जाती है
छुअन के लम्हों को फिर से जीते हुए

अपने सीने में सारे रिश्ते समेटे हुए
वापस लौट आता है स्वार्थी आदमी
अपने देश को —
जहाँ उसका आदि है, अन्त है

लगता है शायद,
वह भूल नहीं सकता
सच का यह आईना
जैसे कोई बुद्धत्व उतरा हो उन पर
हमेशा दिखाएगा
सम्यक सत्य का सम्यक मार्ग

ओड़िआ से अनुवाद : हरेकृष्ण दास