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कोई उजली, भीगी बदली आकर कन्धे पर झुक जाए / धनंजय सिंह
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कोई उजली, भीगी बदली
आकर कन्धे पर झुक जाए
तो तुम्हीं कहो, वह भीगापन
जी लूँ या तन-मन जलने दूँ ?
मैं प्यास छिपाए फिरता हूँ
बादल से, सरिता- जल से भी
यद्यपि अधरों का परिचय है
बिजली से भी, उत्पल से भी
कोई हिमखण्ड तपन मेरी
हरने को आतुर हो जाए
तो तुम्हीं कहो, वह शीतलता
पी लूँ या कण-कण ढलने दूँ ?
अनकही हमारी बातों को
सब दीवारें सुन लेती हैं
फिर अपनी सुविधाओं वाला
ताना-बाना बुन लेती हैं
यदि तोड़ भ्रमों का इन्द्रजाल
कोई वातायन खुल जाए
तो तुम्हीं कहो, तम की परतें
यों छीलूँ या भ्रम पलने दूँ ?