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प्रेरणा / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'

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कुछ भी न किया जो हॅंस-हॅंस कर
उर के चिथड़े को सी न सके
कटुता के तीखे विष को चख
जो झूम-झूम कर पी न सके।

माना कि बहुत हो झेल चुके
सौ बार प्राण से खेल चुके
जीती बाजी पर हाथ गये
चुपचाप व्यथा जो पी न सके!

तुममें हिम्मत की लाली है
मंजिल खिंच आने वाली है
पर कभी उसे पा सकते क्या
पहचान अगर पथ ही न सके।

जीवन का राज निराला है
जिसमें दुख मधुमय हाला है
रह गए दूर मस्ती से जो
विपदा का आसव छू न सके।