मैंने दस्तावेज़ पढ़े दो जिस्मों के;
शिकायत थी उन्हें रूहों से अपनी
वो रूहें चाहती थीं एक होना
शरीरों के लिए मुम्किन नहीं था
शरीरों ने बहुत कोशिश भी की थी
वो मिलते थे मगर घुलते नहीं थे
कि जैसे खून का पानी में घुलना
कि जैसे धूप का चेहरे पर खिलना
कि जैसे चूमना गेसू हवा का
कि जैसे धूल का धरती पर मिलना
वो रूहें चाहती थीं एक होना
मयस्सर ये मगर उनको नहीं था
सो इक दिन सोच के कुछ तो समझ के
शरीरों को वह तन्हा छोड़ आईं
शिकायत थी जिन्हें रूहों से अपनी
मैंने दस्तावेज़ पढ़े उन जिस्मों के।