ख़ुद का भी जायज़ा लिया जाए
फिर ज़माने से कुछ कहा जाए
बूद गहरा है तेज़-रौ है हयात
आइए डूबकर बहा जाए
ख़ुद में गहराइयाँ समेटे हूँ
किस बुलन्दी को अब चढ़ा जाए
यूँ तो ख़ल्वत है बे-नियाज़ी है
शोर हर सम्त क्यूँ बढ़ा जाए
रौशनी तो ख़ला में भटके है
और आलम ये फैलता जाए
हम हैं नाज़िर हमीं नज़ारा हैं
दरमियाँ गर ख़ुदा न आ जाये
तुख़्म क्या बोइए क़दामत का
क्यूँ न जंगल को ही चला जा
शब्दार्थ :
बूद – हस्ती, अस्तित्व (existence); तेज़-रौ – तेज़-रफ़्तार (swift); हयात – ज़िन्दगी (life); ख़ल्वत – एकान्त, अकेलापन (solitude); बे-नियाज़ी – उदासीनता, निस्पृहता (unconcern); सम्त – ओर, दिशा (direction); ख़ला – शून्य (space); आलम – ब्रह्माण्ड (universe); नाज़िर – दर्शक (spectator); नज़ारा – दृश्य (spectacle); तुख़्म – बीज (seed); क़दामत – प्राचीनता (antiquity)