अब मैं तर्क की बात करती हूँ
तुम जब सुर्ख लाल गुलाब
और
उसके असर में मदहोश मौसम का ज़िक्र करते हो
यकीनन प्रेम मेरे लिए किसी
खास मौसम का पर्याय नहीं रहा
यह वैसा ही है जब समंदर में डूबी नदियाँ
कछार का कटाव
और मीठेपन का स्वाद छोड़ देती हैं
समय दबे पाँव अपना सफ़र तय किये जाता
और
स्मृतियों की पीठ पर अपने चिह्न शैवाल की तरह छोड़ जाता
यहाँ फिसलन ही फिसलन है
मगर पतवार थामती उँगलियों पर सख्त डोर के नीलवर्णी दाग हैं
वह अपना ज़ख़्म नहीं भूलती
कितने शरद आये गये
बसंत पीतवसना और चटकीला रहा
वह अतीत के भार से स्वच्छंद है
आखिर सर्द ग्लेशियर पिघलते हैं
और
नदियाँ छलछलाती हैं
प्रेम पिंजरे में क़ैद होना नहीं
मुक्त होना रहा
तस्वीरकश के कैमरे में लम्हों की छाया सिमटती
समय नहीं
वह तो निर्मोही रहा!