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क्षरण / महेश कुमार केशरी

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कुछ दशक पहले तक
दिखता था वह , खटिया
बनाने वाला काला, मरियल
बूढ़ा
करीब अस्सी साल का
उस समय
भी रहा होगा वह बूढा
 
लेकिन, काम करने में वह जवानों
का भी कान काटता था

वो काला, मरियल-सा बूढ़ा
अलस्सुबह ओसारे में आकर
खडा़ हो जाता

आंँखें अंदर तक धंँसी हुईं
आंँखों में कीचड़ जमा होता

तन पर एक धोती
बदन से बिल्कुल नंगा
होता वह बूढ़ा

मजदूरी में बीस रुपये लेता
और खाता, एक थरिया भात और
दाल

बीस रूपये से कम में वह कभी नहीं
बुनता था खटिया

खटिया, के चारों पायों के बीच
रस्सी की ऐसी बुनाई करता
जैसे पंक्षी अपने घोसले की
 करते हैं

वो, बूढ़ा, अलस्सुबह ही आता
और, बुनने लगता खटिया
दोपहर होते -होते वह तैयार
कर देता बुनकर पूरी खटिया
कमर, में खोंसें रहता एक लकड़ी
का नुकीला डंँठल

एक बूढ़ा था, वह सिलबट्टों
को कूटता था
जिससे मसाला अच्छे से पिसा
जा सके

वो, बूढ़ा भी चार रुपये से कम
में नहीं कूटता था सिलबट्टे
मोटा लेंस का चश्मा लगाकर
वो कूटता था सिल- बट्टे

धीरे- धीरे सिलबट्टे पर आकार
उभरने लगता
लगता कोई प्रिज्म हो
या शायद, गीजा का पिरामिड
या शायद, किसी मंँदिर का गुंँबद
ऊपर, से वह तिकोन होता
नीचे आते- आते चौकोर
हो जाती सिलबट्टे की आकृति

अब, खटिया और सिलबट्टे
घर में नहीं दिखते
ना ही
सिलबट्टे का उस तरह से कूटा
जाना सुनाई पडता है

ना ही अब अस्सी साल के
फुर्तीले बूढ़े दिखाई देतें हैं
ना ही मोटे - लेंस के चश्मे
पहनकर सिलबट्टे कूटने
वाला बूढ़ा

ऐसे ही धीरे - धीरे पूरी
दुनियाँ से ख़त्म हो जायेगी
खटिया बुनने की कला !

और सिलबट्टे
के कूटे जाने कीआवाज़