भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

महाकाव्य की राख / ध्रुव शुक्ल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:16, 31 जुलाई 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= ध्रुव शुक्ल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चिता जल रही महाकाव्य की
रचा-बसा है जिसमें जीवन
बहुरंगी पुरुषार्थ कथाएँ
बहुअर्थी परमार्थ व्यथाएँ
कौन ले गया
इसके शव को श्मशान तक

महाकाव्य का अग्निदाह
जल रहे शब्द
शब्दों में बसे हुए अर्थों में जलते
नवरस से उठती विकल भाप
जलते महाकाव्य की देहगन्ध
छा रही शेष जीवन पर

धुएँ में डूब रहे सब छन्द
चिंगारी बन होते विलीन
भाषा की लय में बसे भाव
आग में चटक रहे वाक्यों से
बिखर रहे सब अलंकार
खाक हो रही सब उपमाएँ

महाकाव्य की राख
कौन जाने कब ठण्डी होगी

फिर-फिर होगा उसी राख से
जन्म उसी कवि का
फिर होंगे उसके शब्द प्रकाशित
दर्शन होगा जीवन छवि का

कवि के हृदय सरोवर से
हर युग में बहने को आतुर
नहीं सूखती कविता की नदी
बहाती रहती इतिहासों की राख
कविता के ही कूलों पर
बसती रहती है बार-बार
उजड़ी हुई अयोध्या
कविता पार लगाती रहती सबको