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अटूट... / गीता त्रिपाठी / सुमन पोखरेल

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जब शीर्षस्थ हो जाते हो तुम
मेरी पंक्तियाँ
गीत बनके बहने लगती हैं – तुम्हारी ओर।

तुम्हारे केन्द्र से
मेरी परिधि तक की
अनंत दूरी में,
लगता है
बह रही है युगों से,
विश्वास की एक
अटूट नदी।

इसी समय की
एक सहयात्री मैं
फिर से उगाकर
सारे स्मृतियों की संपूर्ण तरंगों को,
उसी नदी में
तुम्हारे गीतों की मृदुल धुन का
इंतजार करती रहूँगी – अटूट…।
०००


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