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पागल / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा / सुमन पोखरेल

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ज़रूर साथी, मैं पागल!
ऐसा ही है मेरा हाल!

मैं शब्दों को देखता हूँ!
दृश्यों को सुनता हूँ!
खुशबू का स्वाद लेता हूँ!
आकाश से भी पतली चीजों को छू लेता हूँ!

वो चीजें,
जिनका अस्तित्व लोक नहीं मानती,
जिनका आकार दुनिया नहीं जानती!
मैं देखता हूँ पत्थरों में फूल!
जब पानी के किनारे के,
कोमलाकार चिकने पत्थर,
चाँदनी में,
स्वर्ग की जादूगरनी मेरी तरफ देख हंसती है,
इतराकर, नरम होकर, झलककर,
दमकते हुए उठते हैं, मूक पागल की तरह,
फूल जैसे, एक किस्म के चकोर-फूल !

मैं बातें करता हूँ उनसे, जैसे वे बोलते हैं मुझसे
एक भाषा, साथी!
जो लिखी नहीं जाती, छापी नहीं जाती, बोली नहीं जाती,
समझाई नहीं जाती, सुनाई नहीं जाती!
चाँदनी से भीगी गंगा के किनारे उच्छाल आती है उनकी भाषा की
साथी! छाल-छाल!
ज़रूर साथी, मैं पागल!
ऐसा ही है मेरा हाल!
तुम चतुर हो, बाचाल!
तुम्हारा शुद्ध गणित-सूत्र हमेशा से चल रहा है,
मेरा गणित में एक से एक निकाले पे
एक ही बाकी रहता है!
तुम पाँच इंद्रियों से काम करते हो,
मैं छठी से!
तुम्हारा दिमाग है, साथी!
मेरा दिल!
 
तुम मजबूत गद्य हो,
मैं तरल पद्य हूँ।
तुम जम जाते हो जब मैं पिघलता हूँ,
तुम कंचन होते हो जब मैं मटमैला बनता हूँ,
और ठीक उसी का उल्टा!
तुम्हारी दुनिया ठोस है,
मेरी भाप!
तुम्हारी मोटी, मेरी पतली!
तुम पत्थर को एक वस्तु मानते हो,
ठोस कठोरता तुम्हारी सच्चाई है!
मैं सपनों को पकड़ने की कोशिश करता हूँ,
जैसे तुम, वो ठंडी, मीठी अक्षरों में कटी हुई
जल चक्की के गोल सत्य को!
मेरा वेग है काँटों का, साथी!
तुम्हारा सोने का और हीरों का!
तुम पहाड़ को गूंगा कहते हो,
मैं कहता हूँ वाचाल!
ज़रूर, साथी!
मेरी एक नस ढीली है।
ऐसा ही है मेरा हाल!

मैं माघ की ठंडी में,
तारों की सफेद प्राथमिक गर्मी को ताप कर
बैठा हुआ था,
दुनिया ने मुझे तरंगी कहा!
भस्मेश्वर से लौटने के बाद सात दिन
टकटकी लगाए देखकर
मुझे भूत लगा हुआ कहा!
एक सुंदरी के केशों में
समय की तुषार की
पहली छींटा लगी देखकर,
मेरा तीन दिन रोने पे
मेरी आत्मा को बुद्ध का छूने पे
मुझे खिसका हुआ कहा!

वसंत की कोयल की पहली आवाज़ सुनकर
नाचते हुए मुझे देखकर
मुझे झल्ली कहा!
एक सुनसान अमावस्या से मुझे बेदम सा हुआ और
मैं प्रलय-वेदना से उछल पड़ा!
मूर्खों ने मुझे टिकठी में जकड़कर रख दिया!
मैं एक दिन तूफान के साथ गाना गा रहा था,
बुज़ुर्गों ने मुझे
रांची भेज दिया!
एक दिन खुद को मरा हुआ समझकर,
मैं फर्श पर पड़ा रहा था तो,
एक साथी ने ज़ोर से चुटकी काटी
और कहा, “ओए पागल, तेरा मांस अभी मरा नहीं है!”
ऐसी बातें होती रहीं सालों साल!
पागल हूँ, साथी!
ऐसा ही है मेरा हाल!

मैंने नवाब की शराब को खून कहा है,
राजा को गरीब कहा है,
सिकंदर को मैंने गाली दी है!
महात्मा कहे जाने वालों की निंदा की है!
नगण्य व्यक्ति को, मगर
सातवें आसमान तक,
तारीफ के पुल पर चढ़ाया है।
तुम्हारे महापंडित, मेरा महामूर्ख!
तुम्हारा स्वर्ग, मेरा नरक!
तुम्हारा सोना, मेरा लोहा,
साथी! तुम्हारा धर्म, मेरा पाप!
जहां तुम खुद को चतुर समझते हो,
वहां मैं तुम्हें बिल्कुल मूर्ख देखता हूँ!
तुम्हारी उन्नति, मेरी अवनति,
ऐसा ही है मोलभाव का उलट-पलट,
साथी!
तुम्हारी दुनिया, मेरा बाल।
ज़रूर, साथी! मैं बिल्कुल चंद्राहत हूँ,
चंद्राहत,
ऐसा ही है मेरा हाल!

मैं अंधों को दुनिया का मार्गदर्शक देखता हूँ,
गुफा में तपस्या करने वाले को भगोड़ा देखता हूँ,
मिथ्या के मंच पर चढ़ने वाले को
काला ढोंगी देखता हूँ!
विफल को सफल देखता हूँ!
प्रगति को अवनति देखता हूँ!
या तो हूँ मैं ही ऐंचाताना!
या हूँ मैं ही दिवाना!
साथी! मैं दिवाना!
धृष्ट नेतृत्व के बेस्वाद रस का
निर्लज्ज नाच को देखो!
जन-अधिकार की पीठ का टूटना देखो!
जब बड़े-बड़े अक्षरवाले अखबारों के काले झूठ
मेरा विवेक-वीर को
फरेबी झूठ से ललकारते हैं,
तब हो जाते हैं लाल मेरे गाल, साथी!
जलता हुआ अंगारे की तरह लाल!
जब निरीह दुनिया काला ज़हर पीती है,
पीती है कानों से,
वो भी अमृत समझकर,
मेरे आँखों के ही सामने, साथी!
तब खड़े हो जाते हैं मेरे रोम-रोम,
गॉर्गन के सर्पकेश की तरह, छेड़े हुए मेरे
रोम-रोम!
जब मैं देखता हूँ कि बाघ हिरण को खाने जा रहा है, साथी!
या बड़ी मछली छोटी को,
तब मेरी जीर्ण-शीर्ण हड्डियों में भी दधीचि की आत्मा की
भयंकर शक्ति घुसकर, बोलने की कोशिश करती है, साथी!
तब कड़कड़ाने लगते हैं मेरे बत्तीस दाँतों के जबड़े,
दोनों!
जैसे भीमसेन के दाँत!
और,
प्रकोप की लाल-लाल आँखों के गोले को,
यूँ घुमाकर एक ही बार में, मैं
इस अमानव का मानव जगत को,
आग की लपट सी आँखों से देखता हूँ, साथी!
खड़खड़ाने लगते हैं मेरे पुर्जे
खलत्रल, खलबल!
तूफान बन जाती है मेरी साँस!
विकृत हो जाता है मेरा चेहरा!
बनता है मेरा दिमाग, साथी!
बड़बानल सा, बड़बानल सा!
मैं जंगल को खाने वाली आग की तरह बौराया जाता हूँ!
बौराया, साथी!
जैसे कच्चा निगल लूँ विश्वविशाल!
ज़रूर साथी!
मैं सुंदर-चकोर, असुंदर-फोर!
कोमल-क्रूर
चिड़िया, स्वर्गाग्नि चोर
तूफान-पुत्र!
पागल ज्वालामुखी का उद्गार
भयानक व्यक्तित्वपाल!
ज़रूर, साथी!
मैं सनकी दिमाग हूँ, सनकी!
ऐसा ही है मेरा हाल!
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पागल / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा