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आजकल मुझे / अभि सुवेदी / सुमन पोखरेल

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लगता है, आजकल मैं
अक्सर एक साया ढोकर चलता हूँ।
जिस तरह पहाड़ों के अंतरतरंग समझने को
धीरे-धीरे चारों ओर चक्कर लगाते हैं काली घटाएँ,
उसी तरह
कई आकृतियों में चक्कर लगाते हैं औरों के दिल
मेरे चारों तरफ।

अपने ही दिल को ढोकर चलता हूँ।
औरों के दिल के बोझ तले दब-दब कर
आजकल मुझे खुद की अस्मिता से ज्यादा
किसी और का जीवन जिया सा लगने लगा है।

कहते हैं
बहुत से लोग तुझ पर नजर लगाये हुए हैं, तो
तुम अपरिचित आँखों के बाढ़ पर बहा रहा होते हो।
कहते हैं
सभी के दिलों को ले चलते हो, तो
तुम वक्त के पुराने बस्तियाँ ढूंढ
उनको ठहराने की जगह देख रहे होते हो।
इसी तरह से बना हुआ है इतिहास
दिलों के बाढ़ पर किसी को धकेल कर, कहते हैं।

किसी के चमकते नजरों से सीधा देखने से
कोई पीड़ा दिखाई दी तो
कहीं कोई मजबूत संरचना टूट जाती है।
कोई दिल के अंदर का खंडहर दिखाकर
दर्द से उठे, तो
तुम्हारे दिल पर ही भूकंप चल उठता है।

लगता है, इसलिए
इंसान का वक्त धुंध की तरह
सभी के दिलों को छूते हुए उड़ा हुआ होता है
कभी-कभी लगता है
दर्जनों मुर्गे का बाँक मारने से भी नहीं खुलेगी
कल की सी सुबह।
लगता है
हजारों चिड़ियों का मिलकर गाने से भी
शाम
कल की सी सम्पूर्ण आकाश पर आरेखित नहीं होगी।

इसलिए, आजकल
अपने ही छोटे-छोटे सुबहों को
अक्षरों में कुरेदकर
कागजों के मैदानों पर बिखेर देता हूँ
शामों को पकड़कर
कविताओं का क्षितिज पर टांग देता हूँ।

जिंदगी का मतलब
पहाड़ के ऊपर चढ़ चुकने के बाद
“ओफ! घाटी पर सब यादें छुट गईं” कहने की
एक लंबा निस्वास ही तो है।

शहर में पाँव रखे हुए कितने ही दिन हो चुके हैं।
यहाँ कितने ही वक्त को
पुराने घरों और मुहल्लों में
देवालयों और गुम्बदों के खंडहरों में
गिर कर घायलों की तरह तड़पता हुआ देखता आया हूँ।

ऐसा लगने लगा है
कि दिलों और तमन्नाओं के भी
खंडहर होते हैं;
जिस जगह आदमी
खुद का शहीद-दिवस मनाता है, एकल गायन गा-गा कर।
अकेला उद्घोषण करता रहता है
और हथियारों पर
छिपाता है अपने उस फसाने को।

यहाँ आजकल
यात्राओं का कोई मंजिल नहीं,
कुछ जागृति के रास्ते से
डुबक जाते हैं सपनों के अंदर,
कुछ कंधों पर रोशनी ढोकर
अंधेरों को ढूंढते चलते हैं।
टूटकर गिर जाते हैं सपने
जागृतियाँ क्षतविक्षत हो जाती हैं।
अपने कान के बगल से उड़ती गोलियों की आवाज़ों में
घर पर खुद का छोड़ आया संगीत सुनाई देता है
एक किशोर को।

झूठ खेलने वालों के अभिनय
सच्चे खेल हो चले हैं।
उन्हें देख
भीड़ के किनारे खुद खड़ा होकर
वाह! वाह! करते
न चाहते हुए भी ताली मार रहा होता हूँ, मैं।

वक्त के कानों को
मेरी ताली सुनाई नहीं देती।
मेरा समर्थन या विरोध से
किसी खेल का हार या जीत नहीं होता।

कहानियाँ ढूंढते आने वालों का इंतजार कर
अपने सभी अफसानों को समेटकर
एक रंगमंच पर खड़ा कर देता हूँ।
तंत्र आलिंगन में बंधे हुए आकाश-भैरव के नृत्यों को
कपड़ों पर फैलाकर
किसी के आने का इंतजार करता रहता हूँ।

संस्कृति जिसे कहते हैं
कभी लगता है-
जैसे मेरे ही सपनों की खेती है;
खुद का देखा हुआ वक्त पर
कुछ बना डालने की तमन्ना से
खुद का टंगा हुआ आकाश है।

आजकल मैं
पहले ही छोड़ आया घाटियाँ और पहाड़ियाँ
अभी चलता आया हुआ पगडंडियाँ
सभी को
एक ही आकार देना चाह रहा होता हूँ।

मुझे आजकल
औरों के दिलों के खंडहरों से
कुछ रचनाएँ उठा लाने की चाहत परेशान करती है,
आजकल मैं
अपना आकाश औरों को दे
कहीं कुछ बन जाए, सोच कर परेशान हूँ।

लेकिन लगता है,
दौड़ के अंदर कहीं चबूतरे हैं
जो औरों की नजरों के साथ
अपने ही किसी यात्रा में दौड़ते हैं।

मुझे आजकल
कहीं चढ़ते हुए
ऊँचाई परेशान नहीं करती
उतरते वक्त
घाटी की परेशानियाँ असर नहीं करती।

आजकल मुझे
कभी थका हुआ आकाश भी स्पर्श करे तो
कहीं जाने की चिंता की रोशनी पीछा नहीं करती;
आजकल मुझे।

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इस कविता का मूल नेपाली-
आजकल मलाई / अभि सुवेदी