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लापता नागरिक / धिरज राई / सुमन पोखरेल

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माँ!
सपने में मैंने खुद ही तुम्हें सुनाई—
मेरी मृत्यु की ख़बर
और छुआ —
दबी हुई साँसों का दबाव को,
उछलते हुए आँसुओं की लहर ।

कहीं विवशता में तेरहवीं तो नहीं करा रही हो तुम!
या फिर अब भी बेहोशी में ही खोई हुई हो?
क्या तुम्हें पता है?
या कुछ भी पता नहीं?

लेकिन, गवाह हैं—
न निगला हुआ भोजन,
न सो पाया हुआ बिस्तर,
और देने के लिए सिर न मिला हुआ तुम्हारा आशीर्वाद —
मैं अभी मरा नहीं हूँ, माँ!

छोड़ दो, ढूँढो मत।
यह तुम्हारी सामर्थ्य से परे है।
हो सके तो, अपने सभी भगवानों को भेजना
मुझे लेने के लिए — अनजान पते की अंधेरी दर्रे में ।
०००