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मदारी की कविता / कृष्ण पाख्रिन / सुमन पोखरेल

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कविता को
तुम
भालू मान कर
डमरू बजाओ
चाहे लाठी से नचाओ
गूंगे-बहरे लोगों के देश में
लोककथाओं में
लड़की को रिझाने के लिए जाने वाला गूंगा
नाचा था जैसे, वैसे नचाओ!
कविता को, शब्दों को
अर्थों को, अलंकारों को
जिस तरह मिला सकते हो
जिस तरह नचा सकते हो— नचाओ।
लेकिन कविता मत लिखो!

भूकंप आया होगा न?
मेरी बात सुनकर
तुम्हारी बुद्धि में
और तुम्हारी मानसिकता में
उस भूकंप के ऊपर
याद करने वाली बातें बहुत सी होंगी
घर ढह जाने का दृश्य!
विभत्स मृत्यु का दृश्य!!
छोटे-छोटे मासूम बालकों की
बालिकाओं की खोई हुई माताओं की खोज में
मरे हुए पिताओं की खोज में
चलते हुए एक झुंड कदमों के ऊपर
असंतोष की भूख से
चीखते हुए उदास आवाजों के ऊपर
कविता मत लिखो!
वह एक क्रांति होती है।
वह कविता— कविता नहीं होगी
इसलिए कविता मत लिखो!!

अनैतिक बंदर
नैतिकता के प्रस्ताव लेकर
तुम्हारे पास
आ सकते हैं।
धूर्त बिल्लियाँ भी
आजकल तीर्थयात्रा में गई हुई हैं।
लौटकर आए हुए देखने के बाद
कविता को
तुम!
भालू समझकर
डमरू लेकर और मत नचाओ!
डम.............डम..........डम...............
डिग.............डिग.............डिग..........
बहरों को उन के कान में जाकर
कहो!
“दानियों का होगा कल्याण”
तब तालियों की गड़गड़ाहट के साथ
पैसों की बारिश होगी।
उन पैसों की बारिश पर
वे दान और उन दानियों के ऊपर
भीड़ के उन लोगों के ऊपर
कोई कविता मत लिखो!
औरों के लिए
वह एक— विद्रोह होगा।
वह एक— क्रांति होगी।
इसलिए कविता को
तुम!
भालू समझकर
डमरू बजाओ
चाहे लाठी से नचाओ
गूंगे-बहरे लोगों के देश में
लोककथाओं में
लड़की को रिझाने के लिए जाने वाला गूंगा
नाचा था जैसे, वैसे नचाओ!
लेकिन कविता मत लिखो!!

कविता के ऊपर आजकल मेंढक चलते हैं।
कविता के ऊपर आजकल इल्लीयाँ चलते हैं।
मेंढक!
केकड़ा!!
और, चमगादड़!!!

एक गोल मेज पर
नक्षत्र-युद्ध से लेकर शांति प्रस्ताव तक
बड़े-बड़े सम्मेलन करते हैं, फैसले करते हैं
भाषण देते हैं और प्रस्ताव पारित करते हैं
कि मानवों की इस बस्ती को
अब हम
चंद्र-लोक, मंगल-लोक और बुध-लोक पर
क्यों न स्थानांतरण कर दें?
लोग बहुत ज्यादा हो गए हैं
इस धरती पर
इन लोगों को
इन्हीं लोगों के बीच ही
क्यों न तीसरा विश्व युद्ध भड़काया जाए?
क्यों न इनके बीच ही
गृहयुद्ध की आग सुलगाई जाए?
निर्विकल्प!
निर्विकल्प!!
वह प्रस्ताव पारित होता है।

इसलिए
तुम कविता मत लिखो!
कविता!!
कल,
आज,
कल
कविता नहीं रही!!!
ग्लासनोस्त/पेरेस्त्रोइका
रेगन/गोर्वाचोव
युद्ध और शांति बन गयी
कविता कविता नहीं रही ।

इसलिए
कविता मत लिखो!
कविता लिखने को मनाही है!!
प्रतिबंध है!!!

कविता में
अक्षरों का जुलूस होता है।
शब्दों का/हर्फ़ों का
क्रांति होती है।
कविता में
शब्दों /अर्थों /प्रतीक
तुम्हारे खिलाफ ......... विद्रोह करते हैं।
तुम्हारे खिलाफ ......... क्रांति करते हैं।
इसलिए
तुम कविता मत लिखो!
एक मदारी हमेशा ऐसा कहता है
डम...........डम..............डम..........
डिग..........डिग...........डिग..........
कविता को
तुम
भालू समझकर
डमरू बजाओ!
चाहे लाठी से नचाओ!!
गूंगे-बहरे लोगों के देश में
लोककथाओं में
लड़की को रिझाने के लिए जाने वाला गूंगा
नाचा था जैसे, वैसे नचाओ!
कविता को/शब्दों को
अर्थों को/अलंकारों को
जैसे मिला सकते हो
जैसे नचा सकते हो— नचाओ!
लेकिन कविता मत लिखो!!
लेकिन कविता मत लिखो!!

०००