इसी गाँव पर हमें नाज़
वनराज सरीखा
इसी गाँव में हम पर
थू थू करनेवाले
उस टोले में धारासार
बरसती लक्ष्मी
इस टोले में पड़े हुए
रोटी के लाले
इसी हवा में अपनी भी
दो चार साँस है
इसी तवे पर अपनी भी
दो एक चपाती
इस झलकी में अपने
नाखूनों का सत है
इन सफ़ेदपोशों में
कुछ शातिर अपघाती
इसी समय में समय
एक भारी विमर्श है
इसी देश में देश
एक लम्बा आलाप
इन क्षोभों में अपने कुछ
एतराज़ दर्ज़ हैं
इसी कीर्तिगाथा में कुछ अपने अपलाप
सत्याग्रह में इसी
चन्द पाल्थियाँ हमारी
असहयोग में अपने भी
ये मूक नयन
वैचारिक हिंसा पर
उतरे कोविद जन
क्या होगा कैसे अब
रे रे गांधी मन !