बंटवारा / विश्राम राठोड़
सदियों का बंटवारा आज भी रो रहा
गोरों के तमाशों से नया शतरंज चल गया
एक तरफ़ हिन्दू दूसरी तरफ़ मूसलमां आवाज़ लगा रहा
वो सिक्खों का बलिदान पुकार रहा
कितने अनाम महापुरुष जिन्हें यह समां
भी जयकार लगा रहा
आजादी के आज़ादी में करोड़ों ने फांसी का फंदा चूम लिया
हे मालिक अब कैसे समजाऊँ
वो तो नन्हा अभी तो जन्मा था उसका उसमें क्या गुनाह
अब इस बंटवारे को कहाँ मिलेगी उसे पनाह
हर बार वह मातम क्यों आंखों से ओझल नहीं होतें
निकले थे आज़ादी को लेने
आजादी तो मिल गई
और मिल गया नया ज़ख़्म नया
मरहम भी अभी तक भरा नहीं
पर ज़ख़्म नासूर बन गया
जो अपने हाल पर चलने वाले
उन्हें बंटवारा बेहाल बना गया
कैसे आज़ादी के दिवानों से मिलने जाऊँ
मिल गया एक नयाँ दरिया
नदियाँ तो मिलती गई पर पानी ही बिछड़ गया
जिस रास्ते पर मैं निकला हर बार हो गया नया किस्सा
मजहब के लिए लड़ते लोग गले में आ गया रस्सा
गुमनाम आज़ादी के दिवाने हैं
सड़क पर आ ग ई जनता
भूख से मरते क ई अफसाने
अफ़सोस ज़िन्दगी में नहीं लोग के जहन में भी नहीं है
क्या सपना संजोये थे वह आज़ादी के दिवाने
तुम सदा के लिए ख़ुश रहना
और चूम लिए वह मोत
सदा के लिए अमर हो ग ए
वो अनाम दिवाने
बाग वों भी उजड़ गए जहाँ फुल खिलते थे
शूल हर जगह आ गए अब पैरों में लग गए पलिते
बंटवारा मन से शुरू हुआ सरहदों तक चला गया
कितनी गति थी इन स्वार्थों की ख़ुद मनुष्य भी मनुष्य की आवाज़ भूलता गया
यह अंग्रजों का स्वार्थ ही है था जो स्वार्थ को बढ़ाता गया
अपने स्वार्थ के खातिर ही स्वार्थ के बीज को बोता गया