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भागो ! / नजवान दरविश / मंगलेश डबराल

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एक आवाज़ मुझे यह कहते हुए सुनाई देती है — भागो
और इस अँग्रेज़ी टापू को छोड़कर चल दो
तुम यहाँ किसी के नहीं हो इस सजे-धजे रेडियो के सिवा
कॉफ़ी के बर्तन के सिवा
रेशमी आसमान में कतार बाँधे पेड़ों के घेरे के सिवा ।

मुझे आवाजें सुनाई देती हैं उन भाषाओं में जिन्हें मैं जानता हूँ
और उनमें जिन्हें मैं नहीं जानता —
भागो !
और इन जर्जर लाल बसों को छोड़कर चल दो
इन जंग-लगी रेल की पटरियों को,
इस मुल्क को, जिस पर सुबह के काम का जुनून सवार है,
इस कुनबे को, जो अपनी बैठक में पूंजीवाद की तस्वीर लटकाए रहता है, जैसेकि वह उसका अपना पुरखा हो ।

इस टापू से भाग चलो !
तुम्हारे पीछे सिर्फ़ खिड़कियाँ हैं, खिड़कियाँ
दूर जहाँ तक तुम देख सकते हो ।

दिन के उजाले में खिड़कियाँ
रात में खिड़कियाँ
रोशन दर्द के धुन्धले नज़ारे
धुन्धले दर्द के रोशन नज़ारे ।

और तुम आवाज़ों को सुनते जाते हो —भागो
शहर की तमाम भाषाओं में लोग भाग रहे हैं
अपने बचपन के सपनों से
बस्तियों के निशानों से
जो उनके लेखकों की मौत के साथ ही
ज़र्द दस्तख़त बन कर रह गईं

जो भाग रहे हैं, वे भूल गए हैं
कि किस चीज़ से भागे हैं,
वे इस क़दर कायर हैं
कि सड़क पार नहीं कर सकते
वे अपनी समूची कायरता बटोरते हैं
और चीख़ते हैं —
भागो !

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मंगलेश डबराल