मेरी कविता / सुशांत सुप्रिय
ओ मेरे पाठकों
मयखाना नहीं है मेरी कविता
जहाँ पी कर बहकने के लिए के लिए तुम
घुसे चले आओ
पूजा-घर नहीं है मेरी कविता
जहाँ तुम्हें
जूते बाहर ही उतार कर आना पड़े
पाँच-सितारा होटल नहीं है मेरी कविता
जहाँ तुम्हारी फटी जेब के लिए
‘प्रवेश-निषेध’लगा हो
शीशे का घर नहीं है मेरी कविता
किसी आलोचक के फेंके पत्थर से
चटख़ जाए जो
अस्तित्व की सड़क पर
मंज़िल ढूँढ़ते हर यात्री के लिए
मील का गड़ा पत्थर है मेरी कविता
तुम्हारी आत्मा के पूरब में उगे
उम्मीद के सूर्य की
लाली है मेरी कविता
तुम्हारी थकान की राज़दार
पार्क में पड़ी बेंच है
मेरी कविता
एक अकुलाहट समूची शिला-सी
बहती है जिनकी बेचैन धमनियों में
उनके लिए प्रार्थना है मेरी कविता
विद्रूप हँसी हँसते
छिद्रान्वेषी आलोचकों के लिए
कौंधती बिजली है मेरी कविता
मेरे नहीं रहने पर
जो रोएँगे
उनके लिए वसीयत है मेरी कविता!